शुक्रवार, 11 जुलाई 2014

वो अब कैसी होगी। बहुत बदल गयी होगी। मिले तो शायद मैं न पहचान पाऊँ। चेहरे पर कहीं-कहीं झुर्रियों ने अपनी जगह जरूर बना ली होगी। आंखों के नीचे कालिख आ गयी होगी। बाल कम हो गये होंगे, कुछ सफेद भी हो गये होंगे। बच्चे भी हों शायद। उनकी चिंता भी होगी। उनकी पढ़ाई-लिखाई, उनकी जरूरतें। पति से रिश्ते कैसे होंगे। अगर वह प्यार नहीं करता होगा तो वह और बुढ़ा गयी होगी। मैं भी तो बदल गया हूं। घर के अलबम में संभालकर रखी अपनी पुरानी तस्वीर देखता हूं तो खुद को ही पहचान नहीं पाता हूं। चेहरे की सारी मासूमियत वक्त ने छीन ली है। पहले से ही सांवला था, अब रंग कुछ और गहरा हो गया है। चश्मा पहनने से नाक पर गड्ढे बन गये हैं। बाल तो किशोर उम्र में ही इक्का-दुक्का सफेद होने लगे थे, अब तो नकली रंग ओढ़ना पड़ता है। सिर खाली हो गया है। पूरा खल्वाट तो नहीं मगर इतना ही कह सकता हूं कि लाज बची हुई है। कोई सामने से देखे तो बहुत बुरा नहीं लगूंगा लेकिन पीछे से उम्र के खंडहर साफ नजर आते हैं। अगर हम दोनों किसी बस स्टेशन या रेलवे प्लेटफार्म पर संयोगवश पास से गुजर जायें तो कोई किसी को नहीं पहचान पायेगा। समय सारे निशान मिटा देता है लेकिन यादें नहीं छीन पाता। वह मेरी स्मृति के किसी कोने में अभी भी बनी हुई है। सुंदर नैन-नक्श, कजरारी आंखें। एक पूर्ण युवा शरीर। कपड़ों के ऊपर मढ़े हुए शिखर और घाटियां। सलवटों में नाचती हुई नदियां। चहकती हुई चिड़िया जैसी। महंकते हुए बोल। हर मुस्कान में गुलाब की पंखड़ियां बरसाती हुई। दुपट्टे में अपने को छिपाने की कोशिश करती हुई। उसका बैठना, उठना, चलना, बोलना, मुस्कराना, ऐंठना, नखरे करना और गुस्सा होना सब मुझे पसंद था। मुझे उसके पास होने, उससे बतियाने का कोई भी मौका मिलता तो मैं उसे छोड़ता नहीं। हम दोनों साथ-साथ बड़े हुए थे, साथ-साथ खेले-कूदे थे, पढ़े थे। हमारा घर भी पास-पास ही था। कई बार मैं कोई बहाना ढूंढकर उसके घर पहुंच जाता। वह नहीं होती तो चाची से बतियाता, यह सोचता हुआ कि शायद वह पास ही कहीं गयी होगी, अभी आ जायेगी। गांव में उसके पापा सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे माने जाते थे। वे अखबार पढ़ते थे। मैं छोटा था, उन्हें पढ़ते हुए देखता तो रुक जाता। वे बड़े प्यार से हाल-चाल पूछते, पढ़ाई-लिखाई के बारे में उत्सुकता दिखाते, कभी-कभी सवाल भी पूछ लेते, पहेली हल करने को दे देते। फिर तो मैं पहेली हल करने की माथा-पच्ची में जुट जाता। अक्सर ऐसे मौकों पर वह आ जाती। या तो पापा के लिए दवाई लेकर या लाई-भूजा लेकर या फिर केवल पूछने के लिए कि वे खाना कब खायेंगे। मुझे बड़ी मुश्किल होती। किस तरह चाचा से आंखें बचाकर उसे देख लूं।

सोमवार, 11 नवंबर 2013

मेरे बारे मे

 अपने बारे में लिखना हमेशा ही मुश्किल काम होता है। ख़ैर, फिर भी मैं कोशिश करता हूँ। अपने बारे में बताने के लिए कुछ खास तो नहीं है इसलिए जो आम है वही मैं आपको बताता हूँ। मेरा जन्म मध्यप्रदेश के रीवा जिले अंतर्गत हनुमना से ठीक पूर्व में १४ किलोमीटर दूर  बसे एक छोटे से सुन्दर गांव पांती मिश्रान में मध्यमवर्गीय हिन्दू परिवार में हुआ ।
         मैं लगभग ६ फिट  लम्बाई दिखने में सामान्य पर कुछ दोस्त कहते हैं ठीक दिखता हूँ, अत्यंत भावुक हूँ इसीलिए दोस्त ज्यादा हैं दुश्मन तो हैं ही नहीं, ज्यादा दिन किसी से नाराज़ नहीं रह पाता, कोई भी मुस्कुरा कर बोल दे तो सारी पुरानी बातें भूल जाता हूं । मैं कम बोलता हूं, पर कुछ लोग कहते हैं कि जब मैं बोलता हूं तो बहुत बोलता हूं । मुझे लगता है कि मैं ज्यादा सोचता हूं मगर उनसे पूछ कर देखिये जिन्हे मैंने बिना सोचे समझे जाने क्या-क्या कहा है! मैं जैसा खुद को देखता हूं, शायद मैं वैसा नहीं हूं…….कभी कभी थोड़ा सा चालाक और कभी बहुत भोला भी… कभी थोड़ा क्रूर और कभी थोड़ा भावुक भी…. मैं एक बहुत आम इन्सान हूं जिसके कुछ सपने हैं…कुछ टूटे हैं और बहुत से पूरे भी हुए हैं…पर ..थोड़ा सा विद्रोही…परम्परायें तोड़ना चाहता हूं … और कभी कभी थोड़ा डरता भी हूं… मुझे खुद से बातें करना पसंद है और दीवारों से भी…बहुत से और लोगों की तरह मुझे भी लगता है कि मैं अकेला हूं…मैं बहुत मजबूत हूं और बहुत कमजोर भी…”अपनी इच्छा को पाने एक लिए उसके बारे मैं सोचना अच्छी बात है मगर जीवन मे सब कुछ नही मिलता इस बात के लिए हमेशा तैयार रहे।
       मैं एक संवेदनशील, सादे विचार वाला, सरल व्यक्ति हूँ। मुझे अपनी मातृभाषा हिंदी पर गर्व है। मैने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा अपने गाव के विद्यालय से प्राप्त की है अपने ही गॉव के साथियो के साथ खेलना झगड़ना फिर मिल जाना......रास्ते मे आते जाते शैतानी करना कभी नही भुलाया जा सकता कुछ तो बात रही होगी हमारेभाग्य में कि हमें यह परिवेश मिला। हो सकता है कि यहाँ पर उतनी सुविधायें न मिली हों जो आज कल के नगरीय विद्यालयों में हमारे बच्चों को उपलब्ध रहती हैं, हो सकता है कि यहाँ पर अंग्रेजी बोलना और समझना न सीख पाने से विश्वपटल से जुड़ने में प्रारम्भिक कठिनाई आयी हो, हो सकता है कि कुछ विषय अस्पष्ट रह गये हों, हो सकता है कि प्रतियोगी परीक्षाओं का आधार यहाँ निर्मित न हो पाया हो। यह सब होने के बाद भी जो आत्मीयता, जो गुरुत्व, जो विश्वास, जो गाम्भीर्य हमें मिला है वह तब कहीं और संभव भी नहीं था, और न अब वर्तमान में कहीं दिखायी पड़ता है। मेरे लिये वही एक धरोहर है। जो व्यक्तित्व यहाँ से विकसित होकर निकला है, वह एक ठोस ढाँचा  है, वह अपने शेष सभी रिक्त भरने में सक्षम  है।
आज जीवन के ऐसे मुहाने पर खड़ा हू जहा जीवन जीने का लक्ष्य आँखमिचौली खेल रहा है अपनी जन्मभूमि से कोसो दूर हू इस बात का दुख शीने मे टीस की तरह चुभता है काश अपने गाव की गलियो की मिट्टी मे जीवन भर रहने का सौभाग्य मिलता लेकिन बेरोज़गारी ......इक गुस्सा अपनो बुज़ुर्गो के प्रति न चाहते हुए भी है की अगर वो समय रहते अपने बच्चो के भविस्या के बारे मे सोचा होता तो हमे अपने जन्मभूमि से अलग न होता पड़ता .....

रविवार, 25 अगस्त 2013

फाँसी की जगह सुसंस्कारों की आवश्यकता

आज समाज में महिलाओं के लिए बन रहे असुरक्षित वातावरण की जितनी भी निंदा की जाए कम होगी और ऐसे अपराधियों की पहचान करने की प्रक्रिया पारदर्शी एवं विश्वसनीय होनी चाहिए।उन लड़का लड़की या स्त्री पुरुषों में जिसका भी अपराध सिद्ध हो ऐसे अपराधियों को अपराध निरोधक कठोरतम दंड की व्यवस्था होनी ही  चाहिए।

    यहॉं केवल पुरुष या लड़के ही अपराधी होंगे ऐसी सोच ही क्यों? रखना आखिर वे भी इसी समाज के अंग हैं!महिलाओं की तरह ही सभी पुरुष  भी अपराधी नहीं हो सकते।जिस प्रकार हर महिला किसी न किसी पुरुष  की मॉं बहन बेटी होती है उसी प्रकार हर पुरुष  भी किसी न किसी महिला का पिता भाई पति पुत्र आदि होता है। महिलाओं की सुरक्षा के नाम पर ऐसे अपने पिता, भाई, पुत्र आदि को निरपराध दंडित होते देख कर कोई महिला या लड़की क्या अपने को सुरक्षित अनुभव कर सकेगी? समाज एक शरीर की तरह होता है किसी एक हाथ में चोट लगने पर क्या दूसरे हाथ को इसकी पीड़ा नहीं होती।इसी प्रकार पुरुषों को दंडित होते देखकर उससे संबंधित  कोई भी महिला प्रसन्न या सुरक्षित नहीं हो सकती। जो सुरक्षा उसे पिता भाई पति एवं पुत्र से मिल सकती है वो पुलिस कैसे दे सकती है।पुलिस या प्रशासन  किसी महिला के लिए जान पर नहीं खेल सकते हैं जबकि पिता भाई पति एवं पुत्र आदि ऐसा करते देखे गए हैं। इसलिए महिलाओं की सुरक्षा का अर्थ पुरुष विरोध नहीं होना चाहिए।

     आज सभी क्षेत्रों की तरह ही आपराधिक प्रवृत्तियों में भी महिलाओं की भागीदारी बहुत बढ़ती जा रही है अक्सर समाचारों में देखने सुनने पढ़ने को मिलता है कि प्रेमी के साथ मिलकर पति की हत्या या नए प्रेमी के साथ मिलकर पुराने प्रेमी की हत्या या किसी साजिश के तहत ससुराली परिवार को ही समाप्त करवा देना। इस प्रकार की भी घटनाएँ अक्सर देखने 

सुनने को मिलती हैं की अपनी रोजी रोजगार,सामाजिक या राजनैतिक पद प्रतिष्ठा बनाने या बढ़ाने के लिए कई बार अपने पिता, भाई, पति, पुत्र

आदि से छिप कर किसी पुरुष से सम्बन्ध बनाए जाते  हैं चूँकि प्यार नामक खेल में सब कुछ झूठ ही बोला जाता है जिस दिन उस झूठ की पोल खुलती है उस दिन तक प्यार एवं इसके बाद का बलात्कार मानकर उसे दंडित करवाती हैं!ये कहाँ का न्याय है?मैं विश्वास से  कह सकता हूँ कि लगभग हर प्रकार के अपराध में जुड़ी  महिलाओं का अनुपात पुरुषों की अपेक्षा बेशक कम हो किन्तु भागीदारी से इनकार नहीं किया जा सकता है।दोनों बढ़ चढ़ कर अपने अपने हिस्से का कर रहे होते हैं अपराध!स्त्री, पुरुष,  हिंदू मुश्लिम,हरिजन सवर्ण आदि कुछ भी होने से कोई अपराधी नहीं होता है।अपराधी हर जगह हैं  हर वर्ग में हैं।  

    वैसे भी प्यार नाम का कारोबार करने वाले जिन लड़के लड़कियों ने प्यार के नाम पर  किसी एक लड़की या लड़के के लिए अपने माता पिता एवं स्वजनों को छोड़ा हो वे  मूत्रता गर्भित  मित्रता कितने दिन निभा पाएँगे ?जहाँ झूठ का परिचय झूठ की पहचान झूठ की पद प्रतिष्ठा एवं झूठ का आश्वासन तथा झूठ का ही लेना देना होता है। ऐसे प्यार पर विश्वास करने वाले झूठे एवं अविश्वसनीय होते हैं। भले लोग ऐसे लोगों का भरोस ही नहीं करते हैं। इनके साथ उठना बैठना आना जाना तक पसंद नहीं करते हैं, क्योंकि इन्हें अपनी नाते रिश्तेदारी परिचित पट्टीदारों प्रियजनों हेती व्यवहारियों के यहाँ के ही

लड़के लड़कियाँ प्यार नामक खेल खेलने को मिलते हैं।जैसे हर तरबूज लाल नहीं निकलता उसी प्रकार हर लड़के या लड़की की ओर बढ़ाया गया प्रेम नाम की  बासना का हाथ हर बार सफल होकर ही नहीं लौटता है जहाँ असफल हुआ तो बलात्कार नामकी दुर्गन्ध सारी समाज में फैल जाती है।इसलिए शर्म छोड़ चुके ऐसे युवा जोड़ों के मिलने -बिछुड़ने,घात प्रतिघात  में कौन कितना दोषी है?इसका मूल्यांकन कैसे किया जाए?एक बात तो सच है कि विश्वास न करने योग्य तो दोनों होते हैं।  

    जिन माता पिता ने जन्म दिया पालन पोषण किया और आज तक सुख दुःख में साथ खड़े रहे हों ऐसे निस्वार्थ प्रेम करने वाले माता पिता का जो न हो सका या सकी हो जो अपने माता पिता एवं स्वजनों की आशाओं पर खरे  न उतर सके हों !

   इसीप्रकार जिन लड़के लड़कियों के जन्म के समय से ही माता-पिता,भाई-बहन, बुआ-मामा-मौसी आदि स्वजनों ने जिसके विवाह के लिए अपने अपने सपने सजा रखे हों, कोई छोटी बड़ी भेंट विवाह के शुभ समय में आशीर्वाद रूप में जिसे  देने के लिए अपने पास सँभालकर रखी हुई हो। बूढ़े दादा दादी जिसका विवाह देखने के लिए ही अपनी जिंदगी सँभालकर बैठे हुए हैं

     ऐसे समस्त स्वजनों के संबंधों को अकारण ही सस्पेंड करके जो आधुनिक प्रेमी जोड़े आधे अधूरे कपड़े पहने या उन्हें भी  उतार कर गली मोहल्लों, चौराहों, पार्कों में एक दूसरे के मुख में मुख रगड़ रहे हों?एक दूसरे के साथ विवाह करने का आश्वासन दे रहे हों,कह रहे हों कि मैं तुम्हारे लिए सबको छोड़ दूँगा किन्तु तुम्हें नहीं छोड़ूँगा।अपने भविष्य का भला या शुभ चाहने वाले लड़के लड़की को

ऐसे मक्कारों,झुट्ठों,लप्फाजों की बातों पर कभी किसी  विश्वास नहीं करना चाहिए।जो अपनों का नहीं हुआ वो तुम्हारा कब और क्यों   होगा?आवश्यकताएँ परिस्थियाँ परिवर्तन शील होती हैं जिनसे प्रेरित होकर आज तुम्हारे सामने गिड़ गिड़ा रहा है कल कहीं किसी और के द्वार पर प्यार नाम का कटोरा लिए गिड़गिड़ाता मिलेगा !

     ऐसे लोगों से क्यों न पूछा जाए कि तुम्हारे अपनों से ऐसा क्या अपराध हुआ है जो किसी एक लड़के  या लड़की के लिए तुम उन्हें छोड़ने को तैयार हो गए ,क्या उन्होंने तुम्हें बहुत सताया या परेशान किया है? क्या वो तुम्हारा विवाह नहीं करना चाहते हैं? या किसी गंदे कुरूप बीमार अयोग्य लड़के  या लड़की को तुम्हारा जीवन साथी बनाना चाहते हैं, आखिर उनसे ऐसा क्या अपराध हुआ है, जो उन्हें छोड़ने को तैयार हो?वो भी मेरे लिए!आखिर जो तुम्हारे अपने लोग तुम्हें नहीं दे सकते हैं और हमारे आपके कुछ समय के सामान्य अनुभव एवं परिचय के बलपर हमसे वह पा लेना चाहते हो मुझमें ऐसा क्या देखा?जिस लालच में भूल जाना चाहते हो अपने  गौरव मय अतीत के सगे संबंधी ?

      वास्तव में आपका प्रेम तो बहाना है वस्तुतः यह सेक्स पीड़ा की परेशानी है जिसका तत्कालीन  समाधान तब तक के लिए आप हम में देख रहे हैं जब तक कि हमसे अच्छा कोई और साथी आपको मिल न जाए!इसके बाद  हमारी भी दुर्दशा इससे ज्यादा होनी है यह भी मुझे पता है।ऐसा करते ही उसकी  हकीकत  सामने  आ  जाएगी !

   इसलिए अपराधी केवल अपराधी होता है वह स्त्री पुरुष  हिंदू मुश्लिम,हरिजन सवर्ण आदि कुछ भी नहीं होता है।इनकी संख्या बहुत कम है किन्तु ये सक्रिय हैं जिस दिन समाज भी सक्रिय और सतर्क हो जाएगा उस दिन अपराध मुक्त समाज की संरचना प्रारंभ  हो जाएगी।

     इसलिए किसी घटना के घटने पर उस क्षेत्र,जाति समुदाय सम्प्रदाय स्त्री पुरुष  आदि समूचे वर्ग को कोसने की शैली ठीक नहीं है।इससे अपराधी को बच निकलने का रास्ता मिल जाता है उस वर्ग के लोग उसका साथ देने लगते हैं।इससे मीडिया को शोर मचाने में सुविधा भले होती हो किंतु कुछ लाभ न होकर उसके नुकसान अवश्य उठाने पड़ते हैं।उस वर्ग के भले लोग जो उस तरह के अपराध को रोकने में अपनी अपनी शक्ति सामर्थ्य  के अनुशार सहयोग भी करना चाहते हैं उन्हें भी शर्मिंदगी के कारण दूरी बनाए रखनी पड़ती है।
    आज वातावरण ऐसा बनता जा रहा है कि पार्कों आदि सामूहिक जगहों में जिन जगहों पर जितना अधिक लुकने छिपने का बहाना होता है वहॉं उतनी बेशर्मी से युवा लड़के लड़कियों के शिथिल आचरण देखे जा सकते हैं। रेस्टोरेंटों, पार्कों ,पिच्चरहालों, मैट्रो  स्टेशनों आदि सामूहिक जगहों पर अक्सर युवा लड़के लड़कियों को लिपटते चिपटते चूमते चाटते देखा जा सकता है।दोनों प्रसन्न दिखते हैं दोनों बड़ी बड़ी बातें करते देखे सुने जा सकते हैं।यदि इन दो में से किसी एक के जीवन में कोई तीसरा नया आया तो तकरार शुरू होती है।वह कहीं तक भी जा सकती है।कई बार बड़े बड़े अपराध तक होते देखे जाते हैं।चूँकि ये सार्वजनिक जगहें होती हैं जहॉं बहुत सारे लोग देख रहे होते हैं ये बात अलग है कि वे देखने वाले ज्यादातर अपरिचित लोग होते हैं किंतु वो भी स्त्री पुरुष लड़के लड़कियॉं आदि ही होते हैं उनके भी मन उसी प्रकार की बासना के भाव से भावित होते हैं।जिसे उन्होंने संयमपूर्वक रोक रखा होता है। जिसमें जो अविवाहित युवा लड़का या लड़की है वो इनका काम कौतुक देखकर भी अपने मन पर कितना संयम रख पाएगा ये उसके अपने संयम के अभ्यास सदाचरण एवं माता पिता परिवार आदि के संस्कारों पर निर्भर करता है। इनमें भी जो अविवाहित युवा लड़का या लड़की अपने जीवन में एक बार किसी से बासनात्मक सुख ले चुके होते हैं ऐसे  लड़के  लड़कियाँ  सामूहिक स्थलों पर चल रही रास लीला देखकर वो अपने को नियंत्रित रख पाएँगे इसकी संभावना बहुत कम होती है अर्थात वो कुछ भी करने पर उतारू हो जाते हैं।

काम शास्त्र एवं साहित्य शास्त्र में वर्णन मिलता है      ज्ञातः स्वादुः विवृत जघना कः बिहातुं समर्थः?      अर्थात एक बार बासनात्मक सुख का स्वाद पता लग जाने पर फिर उस तरह की परिस्थिति देखकर भी कौन छोड़ पाने में समर्थ हो सकेगा ?

     इसी प्रकार आयुर्वेद में शरीर के तीन मुख्य उपस्तंभ बताए गए हैं भोजन, निद्रा और मैथुन। इनके कम और अधिक होते ही शरीर रोगी होने लगता है।इसलिए भोजन, नींद और बासनात्मक इच्छा रोक पाना अत्यंत कठिन होता है उसमें भी आज कल  विवाह बिलंब से होने लगे हैं।

     प्राचीन भारत में ऐसी ही परिथितियों से निपटने के लिए नियम, संयम, सदाचार, व्रत, उपवास, योगिक क्रियाएँ,प्राणायाम, वैराग्य बढ़ाने वाले साहित्य को पढ़ने की प्रेरणा दी जाती थी फिर भी वैराग्य या ब्रह्मचर्य में स्थित रह पाना अत्यंत कठिन होता था। विश्वामित्र पराशर आदि ऋषि  आखिर डिग ही गए,तो आज सब कुछ खाने, सब कुछ देखने एवं सब तरह का जीवन जीने वाले अविवाहित युवक युवतियों की  ब्रह्मचर्य जन्य संयम की परीक्षा ही क्यों लेनी?

    जहाँ तक कठोर कानून की बात है सरकारी स्तर से ऐसे प्रयास करने में बुराई नहीं है कुछ तो ऐसा करना ही पड़ेगा जिससे इसप्रकार के  स्वेच्छाचार पर नियंत्रण हो सके ।

   यहाँ एक बात और ध्यान देनी होगी कि अक्सर ऐसे मामलों में कदम रखने वाले युवक युवतियाँ  बासनात्मक पीड़ा से इतना अधिक परेशान होते हैं कि वो जिसे पाना चाहते हैं वो भाव नहीं देता है तो ये ऐसी कुंठा के शिकार हो जाते हैं कि अपनी जीवन लीला स्वयं ही समाप्त कर लेते हैं।कई बार ऐसे ही युवा लोग मैट्रो, माल,हॉस्पिटल,होटल, नदी,झील या अपने घरों के पंखों में ही लटक कर अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेते हैं।ये बातें अक्सर देखने सुनने को मिलती हैं।आखिर फाँसी पर कितने को लटकाया जाएगा? जबकि ऐसे मामलों में आत्म हत्या  के मामले बहुत अधिक मिलेंगे।इसलिए यदि मृत्यु दंड से बात बननी होती तो बहुत पहले बन गई होती।एक मनुष्य होने के नाते  मेरा मन ऐसे लड़के लड़कियों की होने वाली दुर्दशा से  बहुत आहत है। आखिर क्या अपराध उनके माता पिता का है जिनके बच्चे मारे जा रहे हैं, या आत्महत्या  करके मर रहे हैं, या मृत्यु दंड देकर मारे जाएँगे। यदि इन तीनों प्रकार के बच्चों के माता पिता के आँसू बहना रोका जा पाना संभव हो पाता तो सर्वोत्तम होता! आखिर जो  दुखद हुआ है वैसा दुबारा न हो, या जो हो रहा है वो अच्छा हो, और  जो आगे होगा वह भी राष्ट्रहित में हो ।

      उचित होगा यदि सार्वजनिक जीवन में फिल्म, सीरियल,हास्यब्यंगकार्यक्रमों,विज्ञापनों आदि की भाषा शैली एवं दृश्यों के सुधार पर ध्यान देकर शालीनता के द्वारा युवाओं के संस्कार सुधारने पर ध्यान दिया जाए !

     आजकल कामेडी शो  से लेकर अन्य फिल्म, सीरियल आदि जगहों  के हास्य ब्यंग एवं तथाकथित कवि सम्मेलनों में केवल लड़की,और लड़की पट गई या लड़की नहीं पटी,या सुहागरात,या बेलेंटाइन डे यही तो चर्चाएँ  तो होती हैं टॉफी गोली की तरह लड़कियॉं एवं उनकी शिथिल चर्चाएँ परोसी जा रही होती हैं।हर प्रकार के विज्ञापनों का यही हाल है।हर ज्योतिषी  ने एक सुंदर सी लड़की झूठी तारीफ करने के लिए अपने साथ बैठाई होती है कि  शायद इस लड़की के बहाने ही कुछ लोग हमें देख लें।    शरीरों पर ही हास्य ब्यंग हो रहे हैं सुंदर युवा शरीर पहले अर्द्धनग्न वेष  भूषात्मक अवस्था में खड़े किए जाते हैं फिर उनकी भाषात्मक छीछालेदर की जाती है।जिसे सुनकर तथाकथित राजा महराजा रूपी दर्शक यह सोचकर खुश हो रहे होते हैं कि हमारी बेटी के बिषय में तो कहा नहीं जा रहा है,इसलिए हॅंसो और हॅंसो, खूब हॅंसो, हॅंसने में क्या जाता है अपना? जिस दिन अपने और पराए की यह कलुषित  भावना छूट जाएगी उस दिन महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों से समाज को मुक्ति मिलेगी।

    इसलिए रसिक युवा लड़के लड़कियों को सार्वजनिक जगहों पर लिपटने चिपटने चूमने चाटने जैसी आदतों पर भी नियंत्रण करके अपनी सुरक्षा की कुछ जिम्मेदारी स्वयं भी सॅंभालनी चाहिए।सरकार और कानून तो अपना काम करेगा ही किंतु केवल इसी के सहारे भी रहना ठीक नहीं है।

      कई बार इंटरनेट,ब्लू फिल्मों, या जनरल फिल्मों के बासना बढ़ाने वाले दृश्य संवाद आदि देखने सुनने याद करने पर मन भड़क उठता है। ऐसे समय पति पत्नी या प्रेमी प्रेमिकाओं के हाथ चंचल हो उठते हैं और संयम का बॉंध टूट जाता है।दोनों में से कौन किसके कहॉं कैसे हाथ लगा रहा होता है कुछ देर के लिए यह विवेक दोनों को नहीं रह जाता है।कई बार फिल्म आदि देखकर निकले प्रेमी प्रेमिकाओं को रिक्सा या आटो पर भी शिथिल व्यवहार करते देखा जा सकता है।जिसका देखने वालों पर गलत असर पढ़ना स्वाभाविक है।उस क्रिया की प्रतिक्रिया कितनी बड़ी होगी कह पाना बड़ा कठिन है।उस प्रतिक्रिया के वेग को रोक पाना किसी के लिए बड़ा कठिन होता है फिर भी अपराध रोकने के लिए कठोर कानून तो बनें ही साथ साथ हमें भी अपने आचार व्यवहार में संयम से काम लेना चाहिए।
   राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख का यह बयान कि बलात्कार भारत में नहीं इंडिया में होते हैं।उनके कहने का अभिप्राय यह हो सकता है कि भारतीय संस्कारों में पली बढ़ी कोई युवा अविवाहित लड़की किसी अन्य लड़के के साथ फिल्म देखने जाएगी ही क्यों ?हो सकता है कि वहॉं न गई होती तो बचाव भी हो सकता था, किन्तु  यहॉं एक प्रश्न यह भी उठता है कि और कहीं भी गई होती, अपने दोस्त की जगह घर के किसी सदस्य के साथ ही गई होती तब भी तो यह सब कुछ होना संभव था,किंतु घर के सदस्य और दोस्त में अंतर होता है दोस्त एक सीमा तक साथ दे सकता है जबकि पति पिता पुत्र भाई आदि पारिवारिक संबंधों के समर्पण की बराबरी कोई और कैसे कर सकता है?फिर भी कौन किसका कैसा कितने दिन का कितना समर्पित दोस्त है यह उसे या उसके घर वालों को ही पता होगा। भारतीय संस्कारों की दृष्टि से तो यही कहा जा सकता है कि ऐसी लड़कियॉं तो अकेली और पूर्ण अकेली होती हैं उनका वहॉं कोई अपना नहीं होता है जहॉं अपराधी ऐसी घिनौनी वारदातों को अंजाम देते हैं।इसलिए उन्हें अपनों के साथ ही देर सबेर निकलने का प्रयास करना चाहिए ।

प्रस्तुत लेख श्री एस एन वाजपेयी जी के ब्लॉग स्वस्थ समाज से लिया गया है 

शनिवार, 17 अगस्त 2013

anupama







मेरी प्‍यारी मां,

तुझे बहुत-बहुत-बहुत सारा प्‍यार!
मां, परसों मदर्स डे था न। मुझे यहां स्वर्गलोक में जरा भी अच्‍छा नहीं लग रहा था मां। सोचा क्‍यों न पापा की चिट्ठी का जवाब लिखूं, जो दुनिया से विदा होने के पहले उन्होंने मुझे लिखी थी। लेकिन तू तो जानती है न मां कि मैं पापा से ज्‍यादा बातें नहीं कह पाती। जो कहना होता है, तुमसे ही कहती हूं। तो मदर्स डे के दिन अपने अजन्मे बच्‍चे के साथ दिन भर यूं ही तुझे याद करती रही और कुछ-कुछ लिखने की कोशिश करती रही।
मां, मुझे अच्‍छा नहीं लग रहा कि तू मेरे कारण परेशान है और फजीहत झेल रही है लेकिन मैं अब कुछ कर भी तो नहीं सकती न! बहुत दूर हूं मां। अगर करने की स्थिति में होती, तो तुम्हें कष्‍ट न होने देती। ऐसे भी तुझे पता है न कि मैं अपनी मां पर जान छिड़कती हूं, उसे कितना प्‍यार करती हूं, यह शब्‍दों में बयां नहीं कर सकती। तू ही बता न कि अगर मैं मां-पापा से प्‍यार न करती और भरोसे का कत्ल करना चाहती तो क्‍यों सिर्फ यह पूछने के लिए दिल्‍ली से कोडरमा जाती कि क्‍या मैं प्रिभयांशु से शादी करूं। मां उसके साथ पति-पत्नी के रिश्ते के बीच जितने भी तरह के भाव होते हैं, उन सभी भावों से तो गुजर ही चुकी थी न, सिर्फ एक सामाजिक मान्यता मिलनी बाकी थी।
मां, प्रिभयांशु के साथ मैं एक दोस्त या प्रेमिका की तरह नहीं बल्‍िक हमसफर की तरह ही रह रही थी। और फिर मुझे आपलोगों के भरोसे का कत्ल करना होता तो मैं अपनी अन्य सहेलियों की तरह कोर्ट में शादी करने के बाद बताती कि मैंने शादी कर ली। तब आपलोगों की मजबूरी होती मां कि अपनी सहमति की मुहर लगाएं। लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया। मैं दो वर्षों के प्‍यार पर जीवन देने वाली मां और पालन करने वाले पिता के प्‍यार को हल्‍का नहीं करना चाहती थी। उसका मान कम नहीं करना चाहती थी।
यह भरोसा था मुझे मां कि जब आपलोगों ने झुमरीतिलैया से मुझे पढ़ाई करने के लिए दिल्‍ली भेजा है, अखबारी दुनिया में नौकरी करने की छूट दी है तो फिर अपने तरीके से, अपनी पसंद के लड़के के साथ जिंदगी भी गुजारने देंगे। मैं कानूनन सब करने में सक्षम थी मां, लेकिन मैं कानून से ज्‍यादा आपलोगों की कद्र करती थी। आपलोगों पर भरोसा करती थी। इसलिए सहमति की मुहर लगाने कोडरमा पहुंची थी। और सुनो न मां, अब तो दो-दो जिंदगियां बरबाद हो ही चुकी हैं। मैं और मेरी संतान ने दुनिया से अलग कर लिया है खुद को। अब प्रियभांशु को भी बरबाद करने के लिए दांव-पेंच क्‍यों चले जा रहे हैं मां।
मां, क्‍या मैं बेवकूफ थी, जो मुझे पता नहीं चल सका था कि मेरे गर्भ में उसका बच्‍चा पल रहा है? मैं अबॉर्शन करा सकती थी न, लेकिन मैंने नहीं करवाया। मैं और कई उपाय भी अपना सकती थी लेकिन नहीं अपनाये। इसलिए कि मैं प्रिभयांशु को मन से चाहती थी, तो तन देने में भी नहीं हिचकी। मां उसने कोई बलात्कार नहीं किया और न ही संबंध बनाने के बाद मुझे बंधक बनाकर रखा कि नहीं तुझे बच्‍चे को जन्म देना ही होगा। यह सब मेरी सहमति से ही हुआ होगा न मां, तो उसे क्‍यों फंसाने पर आमादा है पुलिस। जरा इस बात पर भी सोचना तुम।
हां मां, अब यहां स्वर्गलोक में आ चुकी हूं तो यहां कोई भागदौड़ नहीं। फुर्सत ही फुर्सत है। ऐसी फुर्सत कि वक्‍त काटे नहीं कट रहा। धरती की तरह जीवन की बहुरंगी झलक नहीं है यहां, जीवन एकाकी और एकरस है। लिखने की आदत भी पड़ गयी है, तो सोच रही हूं कि आज पापा के उस आखिरी खत का जवाब भी दे दूं। पापा से कहना वो मेरे जवाब को मेरी हिमाकत न समझें बल्‍िक एक विनम्र निवेदन समझेंगे।
उन्होंने अपने पत्र में सनातन धर्म का हवाला दिया है। अब यहां स्वर्गलोक में जब फुर्सत है तो सनातन धर्म के गूढ़ रहस्यों से भी परिचित हो रही हूं। सनातन धर्म के बारे में पापा शायद ज्‍यादा जानते होंगे मां लेकिन मैं अब सोच रही हूं कि मैंने भी तो उसी धर्म के अनुरूप ही काम किया न। मां, सनातन धर्म ने तो प्रेम पर कभी पाबंदी नहीं लगायी और न ही जातीय बंधन इसमें कभी हावी रहा। देखो ना मां, कृष्‍ण की ही बात कर करो। जगतपालक विष्‍णु के अवतार कृष्‍ण। प्रेम की ऐसी प्रतिमूर्ति बने कि रुक्‍िमणी को भूल लोग उन्हें राधा के संग ही पूजने लगे। घर-घर में तो पूजते हैं लोग राधा-कृष्‍ण को। फिर राधा-कृष्‍ण की तरह रहने की छूट क्‍यों नहीं देते अपनी बेटियों को? क्‍या राधा-कृष्‍ण सिर्फ पूजे जाने के लिए हैं? जीवन में उतारे जाने के लिए नहीं? और यदि जीवन में जो चीजें नहीं उतारी जा सकतीं, उसे वर्जना के दायरे में रखा जाना चाहिए न मां। मां अपने कोडरमा वाले घर में भी राधा-कृष्‍ण की तस्‍वीर है, हटा देना उसे सदा-सदा के लिए।
हां मां, पापा से कहना कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम की तस्‍वीर भी फेंक दें, वह भी सनातन धर्म की कसौटी पर पूजे जाने लायक नहीं हैं। याद हैं मां, बचपन से एक भजन मैं सुना करती थी – बाग में जो गयी थी जनक नंदिनी, चारों अंखियां लड़ी की लड़ी रह गयीं। राम देखे सिया और सिया राम को। चारों अंखियां लड़ी की लड़ी रह गयीं… फिर भाव समझाते थे प्रवचनी बाबा कि शिवधनुष तोड़ने से पहले का नजारा है यह। सीता जी फूल तोड़ने बाग में गयी थीं, राम से नैन लड़े तो दोनों एक दूसरे पर मोहित हो गये। जानती हो मां, इस भजन को याद आने के बाद मैं यह सोच रही हूं कि राम ने भी तो अपने पिता की मर्जी से सीता से शादी की नहीं थी। वह तो गये थे अपने गुरू के साथ ताड़का से रक्षा के लिए लेकिन जब नजरें सीता से मिलीं तो चले गये शिवधनुष तोड़ने। क्‍या राम को यह नहीं पता था कि धनुष तोड़ने का मतलब होगा शादी कर लेना। फिर क्‍यों नहीं एक बार उन्होंने अपने पिता दशरथ से यह अनुमति ली। दशरथ को तो बाद में पता चला न मां कि जनक की बेटी से उनका बेटा शादी करने जा रहा है। तो मां, क्‍या गुरु के जानने से काम चल जाता है। मेरे भी गुरू तो जानते ही थे न। दिल्‍ली में रहनेवाले सभी गुरु और मित्र इस बात के जानते थे कि मैं प्रिभयांशु से शादी करने जा रही हूं। फिर भी मैंने गुरु के बजाय आपलोगों की सहमति लेना जरूरी समझा। राम की तस्‍वीर हटा देना मां उन्होंने भी अपने पिता से पूछे बिना अपना ब्‍याह तय कर लिया था।
मां, पिताजी को माता कुंती की भी याद दिलाना न। सनातनी कुंती की। उन्हें तो कोई कभी कुल्‍टा नहीं कहता। उन्हें आदर्श क्‍यों माना जाता है जबकि उन्होंने छह पुत्रों का जन्म पांच अलग-अलग पुरुषों से संबंध बनाकर दिया। और मां कर्ण वह तो विवाह से पहले ही उनके गर्भ से आये थे न। यह तो सनातनी पौराणिक इतिहास ही कहता है न मां। फिर कुंती को कुल्‍टा क्‍यों नहीं कहते पापा। पापा की कसौटी पर तो तो वह चरित्रहीन ही कही जानी चाहिए।
और द्रौपदी, मां। कोई द्रौपदी को दोष क्‍यों नहीं देता। अच्‍छा जरा ये बताओ तो मां कि परिस्थितियां चाहे जैसी भी हों, कोई एक स्त्री पांच-पांच पुरुषों के साथ कैसे रह सकती है। लेकिन वो रहती थी और उसे कोई दोष नहीं देता। पापा को कहना कि वह द्रौपदी को भी अच्‍छी औरतों की श्रेणी में न रखा करें। एक बात कहूं मां, पापा ने शुरुआती दिनों में ही एक गलती कर दी थी। मुझे धर्म प्रवचन की बातें बताकर। उन्होंने ही एक बार बताया था कि इस जगत में ब्रह्मा की पूजा क्‍यों नहीं होती क्‍योंकि ब्रह्मा ने अपनी ही मानस पुत्री से शादी कर ली थी। छि: कितने गंदे थे न ब्रह्मा।
और मां, रामचंद्र के वंशजों में तो किसी की तस्‍वीर घर में नहीं रखना, क्‍योंकि तुम्हें भी तो पापा ने बताया ही होगा कि धर्म अध्यात्म और सनातनी इतिहास के क्रम में भागीरथी कैसे दुनिया में आये थे। दो महिलाओं के आपसी संबंध से उत्पन्न हुए थे न मां वो। यानी लेस्बियनिज्‍म की देन थे। बताओ तो सही, भला नैतिक रूप से कहां आये थे वो? मैं भी गंदी थी मां। अनैतिक। इन लोगों की तरह ही अनैतिक। मैं कुतर्क नहीं कर रही और न ही अपने पक्ष में कोई दलील ही दे रही हूं मां। यह सब मन में बातें आयीं तो सोचा तुमसे कह दूं। खैर, एक बात कहूं मां, मुझसे तू चाहे जिंदगी भर नफरत करना, घृणा करना, लेकिन अब छोड़ दो न प्रिभयांशु को। उसने कुछ नहीं किया जबरदस्ती मेरे साथ। मैं बच्‍ची नहीं थी मां और न ही अनपढ़-गंवार थी। सब मेरी रजामंदी से ही हुआ होगा न मां।
और हां मां, मुझे फिर से धरती पर भेजने की तैयारी चल रही है। मेरे बच्‍चे को भी फिर से दुनिया में भेजा जाएगा। मैंने तो सोच लिया है कि इस बार अपने नाम के आगे पीछे कोई टाइटल नहीं लगाऊंगी। सीधे-सीधे नाम लिखूंगी। कोई पाठक, तिवारी, यादव, सिंह नहीं। सीधे-सीधे सिर्फ नाम। जैसे कि दशरथ, राम, कृष्‍ण… इन सबकी तरह। इनके नामों के साथ कहां लिखा हुआ मिलता है कि दशरथ सिंह, राम सिंह, कृष्‍ण यादव। मां मैं फिर आ रही हूं। इस बार फिर प्‍यार करुंगी। अपने तरीके से जीने की कोशिश करुंगी। फिर मारी जाऊंगी तो भी परवाह नहीं। पर एक ख्‍वाहिश है मां, ईश्वर से मेरे लिए दुआ मांगना कि इस बार किसी अनपढ़ के यहां जन्म लूं… जो ज्‍यादा ज्ञान रखता हो। जो सनातनी हो लेकिन व्‍यावहारिक सनातनी, सैद्धांतिक नहीं। जो कम से कम अपने संतान को अपने तरीके से जीने की आजादी दे।
बस मां! अभी इतना ही । शेष फिर कभी। तुम अपना ख्‍याल रखना मां और पापा का भी। भाई-मामा को प्रणाम कहना। जल्‍दी ही मिलती हूं मां। नाम बदला हो सकता है लेकिन तू गौर करती रहना… तुम मुझे पहचान ही लोगी।
तुम्हारी बेटी
निरुपमा


  • मां का जवाब निरुपमा के नाम…….
    बेटी तुम जहां भी रहो सुखी रहो। तम्हारी बाते बिल्कुल सही हैं। काश हमने समय रहते तुमसे थोड़ी समझ लेकर उस राह पर चले होते। और ब्रह्मा की तरह तुम्हारे पापा भी अपनी मानस पुत्री से शादी का जतन करते । और मैं राधा की तरह या कुंती की तरह समाज मे प्रेम की तलाश करती । क्योंकि तुम्हारी नजर में ऐसा सही है । और ऐसा करने पर ही हम राधा-कृष्ण की घर में पूजा करने लायक हो पाएंगे। हां एक बात तय है कि यदि तुम्हारी बातों पर हमने अमल किया होता तो और कुछ होता ना होता प्रियभांशु तु्म्हारे साथ तो नहीं जुड़ता । शायद शादी से पूर्व एक या अनेक बार अपने शरीर को सौंपना ही तु्म्हें प्रियभांशु की नजरों में गिरा गया औऱ उसे शादी से इंकार करने में जरा भी हिचक नहीं हुई। क्या तुमने उसे राम,राधा-कृष्ण,कुंती की कथाएं नहीं सुनायीं थी.
    और एक बात तुम इतनी समझदार हो । उपर वाले को भी जरा बुद्धि दो ताकि तुम्हें दोबारा धरती पर ना आना पड़े। तुम्हारी बुद्धि और विवेक की वहां ज्यादा जरुरत है।
    तुम्हारी मां

गुरुवार, 28 मार्च 2013

आखिरी पत्र

आपसे अलग होने की कल्पना मैं पहले भी किया करता था और उसके बाद अपने चारो ओर फैले इस बंधन से घबराने लगता था, पर आपके बातों से मेरा खोया हुआ आत्मविश्वास फिर लौट आता था। अब मेरे साथ ना घबराहट है, ना आत्मविश्वास और ना आप.....

मुझे पता नहीं कि मनुष्य को समय के साथ किस तरह के परिवर्तन अपने व्यवहारों और विचारों में लाना चाहिए, काश मैं आपसे सीख पाता।


और दुःख कि बात करें तो मुझे दुःख नहीं है, हाँ थोड़ा-बहुत आश्चर्य जरुर है। क्या हमारे संबंध कि डोर इतनी कमजोर थी कि व्यवहारिक जीवन कि में आए एक परिवर्तन ने आपको मुझे पहचानना, भी मुनासिब नहीं लग रहा है।


मगर मेरा मानना है कि मनुष्य अपने सभी चीजों में बदलाव ला सकता है परन्तु अपने आत्मा में आकस्मिक परिवर्तन लाना मानव के वश के बाहर की बात है।
मैं चाहता हूँ कि अपने अंदर छुपे इस दुःख और आश्चर्य को निकाल दूं मगर आप ऐसा होने नहीं देंगी, क्योंकि कुछ दिनों पहले जब मैं आपसे कहा करता था कि  –आप मुझे पहचानने से भी इन्कार कर देंगी तो आप मुझसे कहतीं –  “ आपका सोच गलत है
लेकिन अब तो स्पष्ट है कि किसका सोच सही था।

कुछ इस तरह होता कि रुह निचोड़कर यादों कि एक-एक बूँद को अलग कर दिया जाए, पर काश कि ऐसा हो पाता ....अब ये यादें मुझे दलदल जैसा लगता है, मैं इनसे बाहर आने की जितनी कोशिश करता हूँ ...ये मुझे उतना डुबोता जा रहा है.....
मैं ढूंढता हूँ उन्हे खाली पन्नो में
लिखा हुआ खून पानी में बदल रहा है....

गुरुवार, 31 जनवरी 2013

pyar....

एक सच्चे प्यार की कहानी जो ये शिक्षा देती है सच्चे प्यार में अपने को सबखुछ मिल सकता है..


एक लड़का एक लड़की को बहुत प्यार करता था,
लड़के ने लड़की को प्रपोज़ किया..
लड़की :-जितना तेरे एक महीने का खर्चा है, उतना मेरा रोज का खर्चा है,
इसलिए में तुमसे महोबत नहीं कर सकती..

फिर भी वो लड़का उसी लड़की को चाहता है...
पंद्रह साल बाद वो दोनों किसी माल में मिलते है, बातो ही बातो में लड़की ने कहा मेरा पति आज एक बहुत बड़ी कंपनी में नौकरी करता है उसकी सेलरी एक लाख रुपये प्रति महिना है वो बहुत होस्यार है, अब तुम ही बतावो मैंने उस दिन तुम से शादी न कर के कोई गलती तो नहीं की ना...

लड़के की आँख में आसू आ गये, और दोनों फिर अपने काम के लिए जाने लगे..

थोड़ी देर में लड़की का पति उसे लेने आया और उसकी नजर उस लड़के पर पड़ी और कहा सर आप यहा ?, बाद में अपनी पत्नी से मिलते हुए कहा की :- ये मेरी कंपनी के मालिक है और एक साल का 500 करोड़ का टर्नओवर है, और कहा के सर एक लड़की को चाहते है इसलिए आज तक सर ने शादी नही की... ये है प्यार...! जिन्दगी बस एक पल की मोहताज़ नहीं होती, बस वक़्त उसे मोहताज बना देता है....

प्यार को समझे और उसे महत्व दे,,, उसे तोले नहीं... क्योकि प्यार अनमोल है

गुरुवार, 3 जनवरी 2013

राज ठाकरे जी, कृष्ण भगवान भी यू पी के थे!

राज ठाकरे जी, कृष्ण भगवान भी यू पी  के थे!
  
आपको बताना चाहता हूँ कि कृष्ण भगवान यू पी के थे और आपकी विदर्भ ( महाराष्ट्र) की राजकुमारी रुक्मिणी को चुराकर ले गए थे फिर भी आप दही हांडी को राजनीतिक त्यौहार की तरह मनाते हो। आपके रामचंद्र जी भी यू पी के थे और सीताजी ( नितीश जी सुन रहे हैं न) मिथला बिहार की थीं। नासिक में पंचवटी में आकर वो बस गए थे तब आपने आपत्ति क्यों नहीं की?

शायद ये पत्र आपको और आपके समर्थकों को पसंद नहीं आएगा लेकिन यह  निर्विवाद  रूप से सच है कि भारत में हमेशा से बाहरी लोग आते रहे और यहाँ के हो गए, यह क्रम शिवाजी भी रोक नहीं सके। पारसी लोग अब भारत में ही बचे हैं, मुंबई में उनका बाहुल्य है। दक्षिण भारतीय, राजस्थानी, पंजाबी, सिन्धी, और भैया सभी यहाँ आये और प्रदेश की तरक्की और खुशहाली में सबका बराबर का हाथ है। हम मारवाड़ी के बिना बिजनिस के बारे में सोच नहीं सकते, गुजराती के बिना उद्योग चल नहीं सकते दक्षिण भारतीय अपनी कला कौशल के लिए प्रसिद्द हैं, और भैया मेहनत करके कमाने के लिए मशहूर हैं और देश के हर कोने में पाए जाते हैं।एक बार आप हमको भैया कह दीजिये तो आपसे बड़े भाई का रिश्ता हो जाता है, हमारे यहाँ छोटे भाई को भैया और बड़े को भाई साब कहते हैं, इस तरह आप हमारे भाई साब हो ही गए, फिर गुस्सा काहे का?

अब हम छोटे भैया आपको सलाह देना चाहत हैं कि आप अपने चाचा जी के मुकाम तक इतनी जल्दी पहुंचना चाहते हैं कि अपनी क़ाबलियत में अनुभव के साल नहीं जोड़ना चाहते, आपका तरक्की बहुत होगा थोडा इंतज़ार तो कीजिये ।आप अपने चाचाजी से ऊँचे मुकाम के काबिल हैं, इसमें कोई शक नहीं, पर आप नितीश जी को ये सब कहकर नाम कमाने का मौका क्यों देते हैं? गुजरात ने इतनी जल्दी तरक्की की, इस का सबसे बड़ा कारण यही है कि गुजराती भाई सभी देशवासियों को हाथों हाथ बुलाते हैं। नरेंद्र मोदी का एक एस एम एस "वेलकम टू गुजरात" नैनो को ले आया और आज अहमदाबाद ऑटो कम्पनी के लिए हब बन रहा है। मुझे याद है जब सूरत में प्लेग फैला तब सभी उड़िया कामगार पलायन कर गए थे तब चिमन भाई पटेल भुबनेश्वर गए और विजू पट नायक से बोले गुजरात में सब ठीक है, हमारे भाइयों को आने दो।  इस तरह के पचास उदहारण मिलेंगे कि कोई भी शहर या गाँव किसी एक जाति या धर्म का नहीं रह सकता,नहीं तो गाँधी जी गुजरात को ही आजाद कराते, शिवा  जी महाराज महाराष्ट्र के बाहर की सोचते ही नहीं, रानी लक्ष्मी बाई, झाँसी की न कहलाकर मराठी ही कहलाती। नाना साहेब बिठूर (कानपूर) के कहे जाते हैं जबकि वो भी पेशवा थे।

भारत की गंगा जमनी संस्कृति को न तो कोई नुक्सान पहुंचा सका न पहुँचा सकेगा। ये कुछ दिन का जलजला है, पानी अपना स्तर खुद ढूंढ लेगा। जहाँ अकबर को मीराबाई के सामने झुकना पड़ा, सिकंदर महान भी जाने लगा तब उसको भूख लगी लोगों ने उसे सोना दिया तब उसने कहा जब मेरी अर्थी निकले तो हाथ बाहर रखना कहना सिकंदर इस दुनियां में खाली हाथ आया और खाली हाथ गया। मदर टेरेसा ने भारत की भूमि को अपनाया और हमने उन्हें भारत रत्न से नवाज़ा। सिस्टर निवेदिता, जिम कोर्बेट, सबने भारत को गरिमावान कहा। और हम छोटे छोटे प्रदेश के आधार पर कैसे झगड़ सकते हैं?

अब बात राजनीति की, महाराष्ट्र में कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस का शासन है फिर मनसे की तूती कैसे बोलेगी? देश में भी यु पी ए की सरकार है, वो हाथ पे हाथ रखे कैसे बैठ सकते है? महाराष्ट्र और केंद्र सरकार दोनों को इस जिम्मेदारी से बाहर नहीं किया जा सकता।